भाषण

इम्फाल युद्ध की 70वीं वर्षगांठ का उत्सव

पूर्वी भारत के ब्रिटिश उप-उच्चायुक्त स्कॉट फर्सेडोन-वुड द्वारा इम्फाल युद्ध की 70वीं वर्षगांठ के उत्सव के अवसर पर दिया गया अभिभाषण ।

यह 2010 to 2015 Conservative and Liberal Democrat coalition government के तहत प्रकाशित किया गया था
Scott Furssedonn-Wood MVO

मणिपुर के महामहिम राज्यपाल, माननीय मुख्यमंत्री, सम्मानित अतिथिवृंद, देवियों और सज्जनों!

आज यहां ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व करना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है।

मार्च और जुलाई 1944 के बीच जो लड़ाई मणिपुर की पहाड़ियों और घाटियों तथा इसके आसमान में लड़ी गई थी उसे सही मायने में द्वितीय विश्वयुद्ध को मोड़ प्रदान करने वाली घटना और महानतम युद्धों में से एक माना गया है।

जिस पैमाने पर और जिस तीव्रता के साथ यह लड़ाई लड़ी गई थी वह अपने आपमें सचमुच एक इतिहास है: इसमें भारतीय, ब्रिटिश, जापानी, अमेरिकी, ऑस्ट्रेलियाई, कनाडियाई और न्यूजीलैंड के 2,00,000 थल एवं वायु सैनिकों ने भाग लिया था जिन्हें युद्ध की कठिनतम परिस्थितियों में लड़ना पड़ा था। इसमें हुई प्राणों की क्षति के आंकड़े से हमें इस युद्ध की भयानकता का पता चलता है: 17,500 ब्रिटिश और भारतीय-ब्रिटिश सैनिक मारे गए या घायल हुए; 54,000 जापानी सैनिक हताहत हुए। व्यक्तिगत बहादुरी के भी अनोखे मिसाल कायम हुए। ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल देशों को शत्रु का सामना करते हुए सर्वोच्च और सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मान के रूप में प्रदान किया जाना वाला- 5 विक्टोरिया क्रॉस (वीसी)- इम्फाल के सैन्य अभियान के लिए प्रदान किए गए।

एक वीसी 19 वर्षीय अब्दुल हफीज को प्रदान किया गया जिसे 6 अप्रैल 1944 को इस स्थान से ठीक उत्तर की ओर दुश्मन के ठिकाने पर अपने प्लाटून के साथ हमला बोलने का आदेश मिला था जहां केवल एक खड़ी ढाल वाली स्थलाकृति और सीधी खड़ी चट्टान से होकर ही पहुंचा जा सकता था। मशीनगनों से गोलियों की बौछार के बीच हफीज ने हमले का नेतृत्व किया। वह जानलेवा रूप से घायल हुआ लेकिन वह अपने से बड़ी संख्या वाली शत्रुओं की टुकड़ी तक पहुंचकर उनके ठिकानों पर कब्जा करने में सफल रहा। इस कार्य के लिए विक्टोरिया क्रॉस हासिल करने वाला हफीज द्वितीय विश्वयुद्ध में पहला मुसलमान सैनिक था।

दूसरा विक्टोरिया क्रॉस द वेस्ट तॉर्कशायर रेजिमेंट के पहले बटालियन के एक्टिंग सार्जेंट 33 वर्षीय हैंसन टर्नर को प्रदान किया गया। उसे मणिपुर में 6/7 जून 1944 को उसके द्वारा दिखाए गए असाधारण वीरता कार्य के लिए वीसी प्रदान किया गया जब उसने आधिकारिक प्रशस्ति के अनुसार - “एक हाथ से” और “असाधारण दृढ़ता और उच्चतम धैर्य” के साथ दुश्मनों के हमलों को झेलते हुए उन्हें रात भर रोके रखा ताकि उस दौरान उसके साथी सैनिकों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचने का अवसर मिले।

हैंसन को पांच बार और मात्रा में ग्रेनेड लाने के लिए लौटना पड़ा था और एक हाथ वाला यह जांबाज जब छ्ठी बार ऐसा कर रहा था, शत्रुओं के वार को झेलते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।

हफीज और हैंसन यहीं इम्फाल में दो खूबसूरत राष्ट्रमंडल युद्ध-समाधि में दफन है जिन्हें बड़े एहतियात और कायदे से संवार कर रखा गया है और जिसके दर्शन करने का कल मुझे सौभाग्य मिला। विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किए जाने वाले अन्य तीनों वीर गुरखा सैनिक थे जो युद्ध में जीवित बचे थे।

असाधारण वीरता के प्रत्येक मौजूदा शानदार विवरण के लिए व्यक्तिगत वीरता, कष्ट और बलिदान की ऐसी अनगिनत और भी गाथाएं, जो कभी किसी को सुनाई नहीं गई, बेशक उनमें से कितनी ही यहां घटित हुई होंगी। अपने परिजनों से सैकड़ों हजारों मील दूर सभी पक्षों के थल और वायु सौनिकों ने मणिपुर में वह अनुभव हासिल किया जो उन्होंने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था और जो भाग्य से युद्ध में जीवित बचे उनके साथ ये अनुभव ताउम्र बने रहे।

मणिपुर के लोगों के लिए तो यह सारा कुछ उनकी जमीन पर उनके घर में घटित हो रहा था। निःसंदेह, अनेक मणिपुर वासियों ने भी बड़ी वीरता से युद्ध में भाग लिया। कल मुझे कई वीरों से यहां मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लेकिन, ऐसे अनगिनत लोग होंगे जिन्हें घर-जायदाद खोना पड़ा होगा, विस्थापन का दंश झेलना पड़ा होगा और कितनों को ही युद्ध के भयानक घाव लेकर बाकी जीवन काटना पड़ा होगा।

युद्ध एक जटिल चीज होती है। अंतर्गुंथन की जटिलता और प्रायः विरोधाभासी परिदृश्यों का परिणाम होता है कि घटनाओं के बारे में एक निश्चित समझ अक्सर भ्रांतिपूर्ण बन जाती है। लेकिन जो कुछ यहां घटित हुआ था उस बारे में एक सरल और अखंड सत्य यह है कि सभी पक्षों को भीषण कष्ट और क्षति का सामना करना पड़ा और हर पक्ष ने असाधारण वीरता दर्शाई। और इस कारण, 1944 के उन महीनों में जो यहां घटित हुआ था वह हमेशा-हमेशा के लिए युद्ध में भाग लेने वाले सभी देशों और लोगों के लिए एक साझा अनुभव बना रहेगा। यह मणिपुर वासियों के लिए भी एक साझा अनुभव है जिनकी भूमि सदैव उन वीरों की स्मृति में पवित्र बनी रहेगी जिन्होंने यहां अपने प्राणों का बलिदान किया।

उसी साझे अनुभव के लिए हम सभी यहां इकट्ठे हुए हैं। आज सत्तर साल बाद, मणिपुर के लोगों के अतिथि बनकर हम ब्रिटिश, अमेरिकन, जापानी, ऑस्ट्रेलियाई और भारतीयों का यहां मित्रवत एकजुट होकर मिलना अत्यंत महत्वपूर्ण बात है।

इन बीते सत्तर सालों में हमारे राष्ट्रों ने वैश्विक सुरक्षा और हमारी साझी सुख-समृद्धि के लिए साथ मिलकर काम किया है। यह इसलिए संभव नहीं हुआ है कि हमने 1944 की घटनाओं को भुला दिया है, बल्कि इसलिए क्योंकि हमने उन्हें याद रखा है और इसलिए कि हमने समझ लिया है कि वह सबकुछ अब कभी नहीं दुहराना है। कल, युद्ध-समाधि स्थल पर जब हम पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे उस समय बर्मा अभियान में भाग लेने वाले युद्धवीरों का हमारे साथ मौजूद होना सौभाग्य की बात थी।

वे सब अब बुजुर्ग थे और पूरी आयु जीने का अवसर उनके उन साथियों को हासिल नहीं था जो समाधियों की चिरनिद्रा में लीन थे। उनसे बस कुछ ही गज की दूरी पर बच्चों की एक टोली बैठी थी, एक स्थानीय स्कूल के विद्यार्थियों की। 1944 की घटना उनके पैदा होने के कई दशक पहले की है। लेकिन उनकी उपस्थिति और उनकी भूमि पर जो घटित हुआ था उसके बारे में उनकी समझ तथा युद्ध के बाद हमारे देशों के बीच स्थापित शांति और मैत्री के महत्व के बारे में जितना कहा जाए कम है।
1944 में यहां जो कुछ हुआ उसके बारे में जब तक वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के पास जानकारी और समझ बनी रहेगी तब तक इम्फाल का साझा अनुभव हमारे भविष्य को बेहतर दिशा प्रदान करता रहेगा।

इसी साझे अनुभव का स्मरण करने, साझे में हमने यहां जो कुछ खोया उसे श्रद्धा सुमन अर्पित करने और अपनी आपसी शांति और मैत्री का उत्सव मनाने हम सब यहां एकत्र हुए। हम सबको यहां लाने के लिए मैं प्रायोजकों को और इस मनोरम भूमि पर हमारा हार्दिक स्वागत करने के लिए मणिपुर निवासियों को हृदय से धन्यवाद देता हूं।

आप सबका बहुत-बहुत धन्यवाद!

प्रकाशित 30 June 2014