भाषण

‘महिलाओं पर प्रतिबंध लगाना अर्थव्यवस्था और समाज के लिए बुरा है’

गुवाहाटी में आयोजित गोलमेज विमर्श के अवसर पर कोलकाता में ब्रिटिश उप उच्चायुक्त, स्कॉट फर्सेडोन-वुड के अभिभाषण का रूपांतरण।

Scott Furssedonn-Wood MVO

सम्मानित अतिथिगण, देवियो और सज्जनों एवं मित्रों।

मुझे आज यहां ‘उत्तर-पूर्वी भारत में आदिवासी महिलाओं के अधिकार: प्रतिनिधित्व तथा न्याय की उपलब्धि’ विषय पर इस गोलमेज विमर्श में भाग लेते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है। मुझे उत्तर-पूर्वी राज्यों में से केवल एक ही राज्य के भ्रमण का सौभाग्य मिला है और मैंने असम का भ्रमण दर्जनों बार किया है। मैंने इस क्षेत्र की आर्थिक संभावनाओं को जितनी अच्छी तरह समझा है, उसी प्रकार इन संभावनाओं को यथार्थ बनाने के लिए स्थायी शांति, लैंगिक समता तथा बेहतर प्रशासन की चुनौतियों का भी अध्ययन किया है।

ब्रिटिश उप उच्चायोग उत्तर-पूर्व में सरकार-से-सरकार तथा जनता-से-जनता के बीच कई तरह के कार्यक्रमों के आयोजन में संलग्न रहा है और मुझे इन अवसरों पर उपस्थित रहने तथा इस इलाके तथा इसके समक्ष मौजूदा चुनौतियों के बारे में जानने का अवसर मिला है। मुझे ऐसे बहुत से प्रतिबद्ध तथा सक्रिय लोगों से मुलाकात के अवसर भी मिले, जो बदलाव लाने के प्रयासों में लगे हैं। मैं ईमान से कह सकता हूं कि यह बालिकाओं और महिलाओं द्वारा उनके अधिकारों के लिए चलाया गया आंदोलन ही है, जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया।

अतः मुझे सचमुच प्रसन्नता है कि मैं आज यहां उपस्थित हूं और आदिवासी महिलाओं को प्रतिनिधित्व और न्याय की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए इस बेहद अहम कार्यक्रम में विकास तथा शांति अध्ययन केंद्र को समर्थन प्रदान कर रहा हूं। यह स्पष्ट है कि महिलाओं की राजनैतिक तथा सामाजिक भागीदारी बढ़ाने से समाज में प्रत्यक्ष तथा सकारात्मक बदलाव आएंगे। इस विमर्श के खत्म होने तक हम उन कदमों के बारे में आश्वस्त हो जाएंगे जो इस इलाके में प्रशासन, पुलिस तथा निर्णय-प्रकिया में महिलाओं की बेहतर भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हैं।

कोई समाज केवल तभी अपनी पूर्ण संभावनाओं का विकास कर सकता है जब इस समाज के सभी सदस्यों को अवसर की समानता प्राप्त हो। जब इसके सभी सदस्यों, आदमी हो या औरतें, उन्हें समान रूप से देखा और व्यवहार किया जाएगा। यही वजह है कि लैंगिक समानता इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है। लैंगिक असमानताएं तथा पूर्वाग्रह वैश्विक रूप से संस्कृतियों में व्याप्त हैं, और ये महिलाओं तथा बालिकाओं को अपने अधिकार पूर्णतः प्राप्त करने और वैश्विक प्रगति में सहभागी बनने में बाधक हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की पड़ताल के अनुसार, दुनिया की आधी आबादी आज वंचित है, उत्पादक बनने तथा अवसर हासिल करने से प्रतिबंधित है। 2011 में दुनिया का औसत लैंगिक असमानता सूचकांक 0.492 था, जिससे लैंगिक विषमता के कारण संभावित मानव विकास में 49.2% की कमी का संकेत मिलता है। यह विकास का स्थायी तरीका नहीं है।

और महिलाओं के लिए यह अनिवार्य है कि वे प्रगतिशील संवृद्धि सुनिश्चित करने के लिए राजनैतिक प्रक्रियाओं में एक संपूर्ण तथा सक्रिय भूमिका निभाएं। हालांकि महिलाएं दुनिया की आबादी में आधे से ज्यादा हिस्सेदारी रखती हैं, किंतु दुनिया के राजनैतिक नेतृत्व में उनकी हिस्सेदारी केवल 20% के लगभग है। ब्रिटेन में, हम महिलाओं के अधिकार के लिए आंदोलन हेतु हमेशा सबसे अग्रणी मोर्चे पर रहे हैं, किंतु हम अभी तक वहां नहीं पहुंच पाए हैं, जहां हमें होना चाहिए। हालांकि हम दुनियाभर में लैंगिक समता के लिए आंदोलन और कार्य कर रहे हैं, किंतु हमें ज्ञात है कि हमें अपने घर में सच्ची लैंगिक समता के लिए निश्चित रूप से प्रयास करते रहने होंगे।

तो यह क्यों महत्वपूर्ण है?

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि एक स्थायी विश्व के लिए ‘बालिका प्रभाव’ अनिवार्य है। शिक्षा क्षेत्र में, हमें मालूम है कि बालिकाओं का प्राथमिक और माध्यमिक स्कूली शिक्षा हासिल करना; शिक्षा में ज्यादा समय का मतलब है कि बालिकाओं को यौन हिंसा का न्यूनतम खतरा रहता है, वे देर से विवाह करती हैं, उनके कम से कम बच्चे होते हैं, और अपने बच्चों के लिए बेहतर स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त करती हैं। यह उनके लिए, उनके परिवारों और उनके समुदायों के लिए बेहतर है।

हम जानते हैं कि कोई स्त्री जब स्वयं आमदनी करती है तो वह इसका 90% अपने परिवार और समाज में लगा देती है। यह अर्थव्यवस्थाओं और राष्ट्रों के लिए बेहतर होता है। भारत में, अधिक कार्यकारी महिलाओं वाले राज्यों की आर्थिक समृद्धि तीव्र रही है और वहां गरीबी में भारी कमी आई है।

महिलाओं की समानता और सशक्तिकरण के प्रति उच्च नागरिक वचनबद्धता और मजबूत दृष्टिकोण वाले देशों में दीर्घावधि के लिए प्रतिव्यक्ति आय का विशिष्ट रूप से उच्चतम स्तर पाया जाता है।

इसके विपरीत, महिलाओं पर प्रतिबंध लगाना अर्थव्यवस्था और समाज दोनों के लिए बुरा है। यह बहुत सारी जगहों पर, और बहुत सी महिलाओं के साथ जाहिर है कि अब भी जारी है। महिलाएं दुनिया भर के कार्यों में तीन चौथाई काम करती हैं, खाद्य-पदार्थों में आधे का उत्पादन करती हैं, लेकिन आय का केवल 10% अर्जित कर पाती हैं और संपत्तियों के केवल 1% हिस्से की स्वामिनी हैं।

हमें तुरंत इसका समाधान करने की जरूरत है।

बालिकाओं और महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण करना, लैंगिक समता, महिलाओं के अधिकार और विस्तृत विकास परिणाम हासिल करने के लिए अनिवार्य है।

शोध से यह स्पष्ट तौर से परिलक्षित होता है कि महिलाओं की राजनैतिक भागीदारी से वास्तविक बदलाव होते हैं- नीतिगत विकल्पों में और सामाजिक तथा राजनैतिक संस्थाओं में भी। मिसाल के तौर पर, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के गांवों में, जहां महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में हैं, सार्वजनिक सेवाओं तथा अवसंरचानाओं में बेहतर निवेश अधिक परिलक्षित होता है।

ब्रिटेन घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय दोनों मोर्चों पर महिलाओं के अधिकारों को समर्थन प्रदान करने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है। हमारा विकास मंत्रालय, डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट्स (डीएफआईडी) ने बालिकाओं तथा स्त्रियों के जीवन में परिवर्तन को अपनी पहली प्राथमिकता घोषित किया है। हमने पहले ही 2011 में बालिकाओं तथा स्त्रियों के लिए रणनैतिक दृष्टिकोण की शुरुआत की है। तब से ब्रिटेन ने लाखों लोगों के जीवन में बेहतरी के लिए बदलाव हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभियान आयोजित किए हैं।

भारत में, ब्रिटिश सरकार ने महिला अधिकारों को समर्थन प्रदान करने के लिए कई तरह से कार्य किए हैं। इनमें कई परियोजनाएं सम्मिलित हैं, जो स्त्री सशक्तिकरण पर, स्त्रियों की कानूनी स्थिति पर, तथा यौन तस्करी के प्रतिरोध पर केंद्रित हैं। उत्तरपूर्व में आदिवासी महिलाओं के अधिकारों, तथा उनके लिए प्रतिनिधित्व और न्याय की उपलब्धता के तरीकों के अध्ययन हेतु यह सीडीपीएस प्रयास इस कार्य का एक महत्वपूर्ण अंग है।

सीडीपीएस इस विशिष्ट कार्य-खंड के लिए निश्चित रूप से बधाई का हकदार है। मैंने सीडीपीएस के अध्ययन के प्रारंभिक निष्कर्षों का अध्ययन किया है जो प्रदर्शित करते हैं:

  • उत्तरपूर्वी भारत में लैंगिक समता और स्त्री अधिकारों के बारे में न्यूनतम जागरुकता
  • उत्तरपूर्व में महिलाओं का न्यूनतम राजनैतिक प्रतिनिधित्व; परिणामतः महिलाएं निर्णय लेने की प्रक्रिया का एक प्रभावशाली भाग नहीं हैं।
  • तथापि, अधिकांश आदिवासी महिलाएं राजनैतिक प्रक्रियाओं में हिस्सा लेना चाहती हैं
  • उत्तरपूर्व की आदिवासी महिलाएं अपने कानूनी अधिकारों के रूप में न्याय के प्रति जागरुक हैं, किंतु उनमें से कुछ ही न्यायालय तक पहुंचती हैं; तथा
  • महिलाओं के अधिकारों पर उत्तरपूर्व में खासतौर पर जागरुकता बढ़ाने की जरूरत पर एक सामान्य सहमति है।

हालांकि ये निष्कर्ष चुनौतीपूर्ण प्रतीत होते हैं किंतु इन्हें भी कार्य करने तथा ऐसा करते हुए इस इलाके के समाज और अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के अवसरों के रूप में देखा जाना चाहिए। स्त्री सशक्तिकरण, क्षमता एवं ज्ञान के सृजन और राजनीति तथा प्रशासन में अधिकाधिक महिलाओं को भाग लेने के लिए प्रेरित करने के प्रयासों में सरकार तथा नागरिक समाज साथ मिलकर काम कर सकते हैं।

भारत के उत्तरपूर्व में पर्याप्त संभावनाएं मौजूद हैं। ये संभावनाएं यहां के मानव-संसाधन की क्षमता पर आधारित हैं। किंतु इन्हें केवल तभी साकार किया जा सकता है, जब समाज का हर सदस्य- चाहे वह किसी भी लिंग, धर्म या जातिगत पृष्ठभूमि से आता हो- को अपनी खुद की संभावनाओं को पहचानने, और अपने समाज के राजनैतिक और आर्थिक जीवन में पूर्ण रूप से योगदान करने के अवसरों का लाभ प्राप्त हो।

यहां काफी कार्य करने हैं लेकिन आज का यह कार्य एक महत्वपूर्ण पहल है। मैं अच्छे विमर्श की कामना करता हूं और आश्वस्त हूं कि उत्तरपूर्व में एक बड़ा परिवर्तन किया जा सकेगा, जिससे वैयक्तिक जीवन में उन्नति के साथ ही इस क्षेत्र को घर कहनेवाले हर व्यक्ति के लिए एक उज्ज्वल, अधिक सौभाग्यशाली तथा अधिक सुरक्षित भविष्य निर्मित किया जा सकेगा।

धन्यवाद

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प्रकाशित 16 February 2016